शहर-ए-दिल सुलगा तो आहों का धुआँ छाने लगा शबनमी आँचल मगर यादों का लहराने लगा शाम-ए-तन्हाई में भी इक शख़्स की यादों का साथ रंग अपने ग़म के वीरानों का सँवलाने लगा थाम कर बैठा रहा मैं चाँदनी का नर्म हाथ जब अंधेरा ज़ुल्फ़ का माहौल पर छाने लगा दश्त-ए-तन्हाई में जी चाहा उसे आवाज़ दूँ जब पुकारा ख़ुद सदा से अपनी टकराने लगा शाम ही से जल उठे जब उस की यादों के चराग़ छाँव में तारों की शब पर भी निखार आने लगा