शहपारा-ए-अदब हो अगर वारदात-ए-दिल नक़्श-ओ-निगार-ए-फ़िक्र में हो जाए मुंतक़िल था ए'तिबार-ए-ज़ब्त मगर आज ना-गहाँ ख़ुद वो तड़प उठे हैं कुछ ऐसा दुखा है दिल लुत्फ़-ओ-करम की अब वो तमन्ना नहीं रही किस दौर में हुई है तिरी चश्म मुन्फ़इल थी आरज़ू सकूँ की मगर इस क़दर नहीं इस शिद्दत-ए-ख़ुलूस से घबरा गया है दिल किस वक़्त याद आई है दौर-ए-नशात की माहौल भी उदास तबीअ'त भी मुज़्महिल मुद्दत के बा'द आज मिले भी तो इस तरह कुछ हम भी शर्मसार हैं कुछ वो भी हैं ख़जिल