शहर-ए-उल्फ़त में ब-जुज़ जाँ का ज़ियाँ कुछ भी नहीं लौट चल ऐ दिल-ए-नादाँ कि यहाँ कुछ भी नहीं आतिश-ए-इश्क़ बुझी राख उड़ी दूर तलक अब न शो'ला न शरारा न धुआँ कुछ भी नहीं शब के सन्नाटों में आवारा भटकते ही रहे और भटकने का सबब भी था कहाँ कुछ भी नहीं किस अजब मोड़ पे गर्दिश हमें लाई कि जहाँ अपने होने का यक़ीं है न गुमाँ कुछ भी नहीं ऐसी रातों का मुसाफ़िर हूँ मिरे हिस्से में चाँद का नूर न तारों का निशाँ कुछ भी नहीं दिल में गर बात कोई है तो कहो बात कि है गर नहीं है तो कहो साफ़ कि हाँ कुछ भी नहीं धूप साए को तरसती हुई देख आए हैं कुछ नहीं आस के सहरा में मियाँ कुछ भी नहीं ज़िंदगी दश्त की मानिंद नज़र आती है जिस की क़िस्मत में ज़मिस्ताँ न ख़िज़ाँ कुछ भी नहीं कोई क़ातिल नहीं मक़्तल पे पड़े हैं ताले तुम कहाँ जाते हो साहिब कि वहाँ कुछ भी नहीं