शह्र में रौशनियाँ घर में उजाले कम हैं जल उठें आ कि बहुत हैं ये हवाले कम हैं राह-ए-हक़ पहले से मुश्किल नज़र आती है हमें ख़ुश न हो कोई अगर पाँव में छाले कम हैं घर तसव्वुर में अगर है तो सड़क पर आ जा और वो बोल जिसे बोलने वाले कम हैं हैं उधर वो कि जो ज़ालिम भी हैं शद्दाद भी हैं और इधर वो हैं कि जो टूटने वाले कम हैं हाकिम-ए-शहर हमें इतना भी मजबूर न कर फ़ैसले कर लिए हम ने जो वो टाले कम हैं इतनी तारीक फ़ज़ा पहले कभी थी ही नहीं हम ने जितने भी चराग़ अब के उछाले कम हैं ऐ वतन जिन को ये लगता है कि सब ठीक है वो और कुछ होंगे तिरे चाहने वाले कम हैं