शजर गहरे ज़मीनों में गड़े हैं तो क्यूँ हल्की हवा में काँपते हैं चलो इस मोड़ से वापस चलें हम अब आगे मुख़्तलिफ़ रस्ते बने हैं हमें ये दुख नहीं है ख़ुद को खोया ये ग़म है हम उसे भी खो चुके हैं हमारे ख़्वाब भी अपने कहाँ हैं किसी की याद ने आ कर बुने हैं जब उस को भूल बैठी हूँ मैं 'फ़रहत' तो फिर आँखों में कैसे रत-जगे हैं