शजर जलते हैं शाख़ें जल रही हैं हवाएँ हैं कि पैहम चल रही हैं तलब रद्द-ए-तलब दोनों क़यामत ये आँखें उम्र-भर जल-थल रही हैं चमकता चाँद-चेहरा सामने था उमंगें बहर थीं बेकल रही हैं दबे-पाँव मिरी तन्हाइयों में हवाएँ ख़्वाब बन कर चल रही हैं सहर-दम सोहबत-ए-रफ़्ता की यादें मिरे पहलू में आँखें मल रही हैं तिरी याद और बे-ख़्वाबी की रातें ये पलकें आँख पर बोझल रही हैं बहुत पेचीदा हैं चाहत के अंदाज़ कि अब दिल-दारियाँ भी खल रही हैं तराज़ू हैं ख़िरद-मंदों के दिल में वही बातें जो बे-अटकल रही हैं 'ज़िया' उन साअतों में उम्र गुज़री खुली आँखों से जो ओझल रही हैं