शक नहीं है हमें उस बुत के ख़ुदा होने में चैन ही चैन है राज़ी-ब-रज़ा होने में कौन छुप छुप के मोहब्बत नहीं करता आख़िर क्या बुराई है यही खेल खुला होने में बात-बे-बात उन्हें आदत है ख़फ़ा होने की कोई सानी नहीं रखते वो ख़फ़ा होने में ज़िंदा रहने से बड़ा जुर्म भला क्या होगा ताहम इक उम्र गुज़ारी है सज़ा होने में पहले दुनिया में वफ़ा कोई सिफ़त होती थी शर्म आती है अब अरबाब-ए-वफ़ा होने में मसअला बन गई छोटी सी बुराई ऐ 'शुऊर' क्या तकल्लुफ़ है भला और बुरा होने में