शाम बे-कैफ़ सही शाम है ढल जाएगी दिन भी निकलेगा तबीअ'त भी सँभल जाएगी इस क़दर तेज़ है दिल में मिरे उम्मीद की लौ ना-उमीदी मिरे पास आई तो जल जाएगी नर्म शानों पे न बिखराव घनेरी ज़ुल्फ़ें इन घटाओं से शब-ए-तार दहल जाएगी मस्त आँखों के दरीचों से न झाँका कीजे जाम टकराएँगे मय-ख़्वारों में चल जाएगी बन-सँवर कर मुझे समझाने न आओ वर्ना फिर तमन्ना-ए-दिल-ए-ज़ार मचल जाएगी माह-ए-नौ देखने तुम छत पे न जाना हरगिज़ शहर में ईद की तारीख़ बदल जाएगी इतना सज-धज के अयादत को न आया कीजे वर्ना कुछ सोच के ये जान निकल जाएगी क्यों परेशाँ हो शब-ए-हिज्र की आमद पे 'जलील' गर्दिश-ए-वक़्त है आज आई है कल जाएगी