शाम गुज़री है अभी ग़म की सहर बाक़ी है इक सफ़र ख़त्म हुआ एक सफ़र बाक़ी है किस तरह घर में कहूँ अपने शिकस्ता-घर को कोई दीवार सलामत है न दर बाक़ी है ज़र्द आता है नज़र ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ से वो भी एक पत्ता जो सर-ए-शाख़-ए-शजर बाक़ी है अब जलाएँ भी दोबारा तो वो शायद न जलें जिन चराग़ों पे हवाओं का असर बाक़ी है क्यूँ रहे तिश्ना-ए-ख़ूँ वो भी हमारे होते तेरे तरकश में कोई तीर अगर बाक़ी है ख़त्म होते ही मैं आती नहीं राह-ए-मंज़िल उम्र-भर चलते रहे फिर भी सफ़र बाक़ी है दश्त की ख़ाक हुआ जिस्म तो कब का 'ख़ावर' शहर में अब भी मिरा नाम मगर बाक़ी है