शाम के साथ जला एक दिया आहिस्ता बुझ न जाए कहीं ऐ बाद-ए-सबा आहिस्ता याद-ए-अय्याम की तल्ख़ी भी मिली है उस में जाम होंटों से लगाओ तो ज़रा आहिस्ता ज़ख़्म ही ज़ख़्म है सर-ता-ब-क़दम जिस्म मिरा फूट जाऊँ न कहीं दस्त-ए-हवा आहिस्ता बा'द मुद्दत के अभी आँख लगी है ग़म की कोई नौहा कोई नग़्मा कि सदा आहिस्ता टूट जाएँ न कहीं ज़ख़्म-ए-जिगर के टाँके ऐ मसीहा ज़रा तकमील-ए-वफ़ा आहिस्ता मस्लहत-केश ख़राबे में शुऊ'र-ए-हस्ती जुर्म आहिस्ता अभी हर्फ़-ए-जफ़ा आहिस्ता ख़्वाब की वादी-ए-गुलनार से जागी 'हुस्ना' कोई देता है मुझे जैसे सदा आहिस्ता