शाम तक ऐसा थकन से चूर हो जाता हूँ मैं जिस्म से बानू-ए-शब काफ़ूर हो जाता हूँ मैं तेरे जल्वों से कभी जब दूर हो जाता हूँ मैं अपनी आँखों के लिए बे-नूर हो जाता हूँ मैं लोग हो जाते हैं वामिक़ लोग हो जाते हैं क़ैस इंतिहा-ए-इश्क़ में मंसूर हो जाता हूँ मैं चाहता तो हूँ करूँ ख़ल्क़-ए-जहाँ पर ग़ौर-ओ-ख़ौज़ दर-गुज़र ऐ रब्ब-ए-कुल मसहूर हो जाता हूँ मैं जब भी सुनता हूँ ज़बान-ए-ग़ैर से अपनी सिफ़ात सच कहूँ थोड़ा बहुत मग़रूर हो जाता हूँ मैं मेरी आँखें कर रही होती हैं जब दीदार-ए-यार अपने पैकर में सरापा तूर हो जाता हूँ मैं शहर में साहिब बना फिरता हूँ किस किस रंग से गाँव जा कर फिर वही मज़दूर हो जाता हूँ मैं मिल ही जाती है हिसार-ए-दर्द से मुझ को नजात फिर हिसार-ए-दर्द में महसूर हो जाता हूँ मैं आदमी 'अख़लाक़' मैं अच्छा हूँ इस में शक नहीं हाँ कभी हालात से मजबूर हो जाता हूँ मैं