शामिल-ए-कारवाँ तो हम भी हैं तेरी जानिब रवाँ तो हम भी है ये हक़ीक़त नहीं तो फिर क्या है या'नी वहम-ओ-गुमाँ तो हम भी हैं बार-ए-हिजरत सरों पे है अपने इतने बे-ख़ानुमाँ तो हम भी हैं कह रहे हैं ख़िज़ाँ ज़दा चेहरे ऐ बहारो यहाँ तो हम भी हैं सच न मानो तो झूट ही कह लो इक रुख़-ए-दास्ताँ तो हम भी हैं हम को ख़ाक-ए-रह-ए-सफ़र मत जान ऐ ज़मीं आसमाँ तो हम भी हैं सिर्फ़ मा'नी की वुसअतें ही नहीं लफ़्ज़ के दरमियाँ तो हम भी हैं