शमीम-ए-ज़ुल्फ़-ए-मुअम्बर जो रू-ए-यार से लूँ तो फिर ख़ता है मिरी मुश्क गर ततार से लूँ क़दम रखे मिरे सीने पे आ के गर वो निगार हिना का काम मैं ख़ून-ए-दिल-फ़िगार से लूँ अगर मिले तिरे हाथों से ऐ जुनूँ फ़ुर्सत क़िसास-ए-आबला-पाई मैं नोक-ए-ख़ार से लूँ मिरे हुज़ूर ये लोटे है तेरी छाती पर जो पहुँचे हाथ तो बदला गुलों के हार से लूँ दिला बजे कहीं घड़ियाल ता मैं घड़ियों का हिसाब उस शब-ए-हिज्र-ए-सियाहकार से लूँ अजब है सैर किसी दिन तो साथ बाग़ में चल कहाँ तलक मैं क़दम इज्ज़-ओ-इंकिसार से लूँ पटा-पटी का मिरे पास गर न हो ख़ेमा तो यार तेरे लिए अब्र-ए-नौ बहार से लूँ जो मय-कशी का इरादा हो कुछ तिरे दिल में चमन में साग़र-ए-गुल दस्त-ए-शाख़-सार से लूँ अगर सुराही-ए-ग़ुंचा में हो न बादा-ए-सुर्ख़ तो शीशा-ए-मय-ए-ख़स सर्व-ए-जूई-बार से लूँ न होवे मुतरिब-ए-नग़्मा-सरा तो इस का काम क़सम है मुझ को तिरी अंदलीब-ए-ज़ार से लूँ लगे न हाथ कोई गर रबाब-ओ-चंग-नवाज़ तो अपने दोश पे रख बीन को मैं तार से लूँ ये जी में हो कि न देखे कोई तो पर्दे को कनार-ए-आब-ए-रवाँ चादर आबशार से लूँ बलाएँ लेने से मेरे अगर ख़ुशी हो तिरी बलाएँ मेहर से इख़्लास से प्यार से लूँ गर उस पे भी गुल-ए-आरिज़ का तू न दे बोसा तो फिर मैं जब्र करूँ अपने इख़्तियार से लूँ 'नसीर' मदरसा-ए-इश्क़ में मुतव्वल का सबक़ न क्यूँकि मैं ज़ुल्फ़-ए-दराज़-ए-यार से लूँ