शरीक-ए-ख़ल्वत-ए-ख़ूँ-बार थोड़ी होता है ये शहर ग़म का, निगह-दार थोड़ी होता है शिकस्त ओ फ़त्ह के अस्बाब तय-शुदा तो नहीं जो एक बार हो, हर बार थोड़ी होता है है एक वक़्त मुक़र्रर, वगर्ना दुनिया में कोई ज़वाल पे तयार थोड़ी होता है फ़रेब-ए-दावा-गुज़ारी है, मसअला कुछ और सभी को इश्क़ का आज़ार थोड़ी होता है लहू की ताल पे आग़ाज़ रक़्स करते हुए इधर उधर से सरोकार थोड़ी होता है उल्टना चाहे जो कार-ए-मुनाफ़िक़त का नक़ाब ये शहर! इस का तरफ़-दार थोड़ी होता है लकीरें खींचते रहने से बन गई तस्वीर कोई भी काम हो, बे-कार थोड़ी होता है