शरीर-ओ-शोख़ नारियाँ किमाद बेलती हुईं वो गुड़ की गर्म भेलियों के साथ खेलती हुईं गुलाब जैसी सूरतें वो चाँद जैसी मूरतें वो तल्ख़ी-ए-हयात को हँसी से झेलती हुईं चटान जैसी लड़कियाँ वो सख़्त-जान लड़कियाँ वो ज़िंदगी की बेड़ियाँ भँवर में ठेलती हुईं निकल पड़ी हैं ख़्वाब में समुंदरों की सैर को वो नीले गहरे आब को परे धकेलती हुईं ये वक़्त है ज़वाल का वबाल का मलाल का हमारे सर पे आफ़तें हैं डंड पेलती हुईं अजब सी संसनाहटें वो वाहिमों की आहटें हवाइयाँ हैं आँख में लहू उँडेलती हुईं वो रज़मिया कहानियाँ सराब कामरानियाँ क़ुलाबे आसमान के ज़मीं से मेलती हुईं