शायद अभी है राख में कोई शरार भी क्यूँ वर्ना इंतिज़ार भी है इज़्तिरार भी ध्यान आ गया था मर्ग-ए-दिल-ए-ना-मुराद का मिलने को मिल गया है सुकूँ भी क़रार भी अब ढूँडने चले हो मुसाफ़िर को दोस्तो हद-ए-निगाह तक न रहा जब ग़ुबार भी हर आस्ताँ पे नासिया फ़र्सा हैं आज वो जो कल न कर सके थे तेरा इंतिज़ार भी इक राह रुक गई तो ठिठुक क्यूँ गईं 'अदा' आबाद बस्तियाँ हैं पहाड़ों के पार भी