शायद रुख़-ए-हयात से सरके नक़ाब और भर दो मिरे सुबू में शराब-ए-गुलाब और होगी मिरे सुबू से नुमूद-ए-हज़ार-सुब्ह उभरेंगे इस उफ़ुक़ से अभी आफ़्ताब और आती है कू-ए-दार-ओ-रसन से सदा हनूज़ आए इधर जो है कोई ख़ाना-ख़राब और मख़मूर-ए-बू-ए-ज़ुल्फ़ न आएँगे होश में छिड़के अभी नसीम-ए-बहाराँ गुलाब और ऐ वारिसान-ए-सतवत-परवेज़ होशियार दामान-ए-वक़्त में हैं अभी इंक़लाब और आई 'ज़फ़र' जो रात ज़बाँ पर हदीस-ए-दोस्त नागाह बढ़ गई मिरे जौहर की आब और