शिआर-ए-ज़ीस्त को कुछ रंग-ए-जावेदाना करूँ सुनाऊँ तल्ख़ हक़ीक़त ग़ज़ल बहाना करूँ कभी तो आ कि तिरी ज़ुल्फ़ के तसद्दुक़ में शुऊर-ओ-फ़िक्र को तस्वीर-ए-आशिक़ाना करूँ हयात बरसर-ए-ताज़ीम दिल अगर ठहरे तो क्यों न ख़ून-ए-जिगर सर्फ़-ए-दोस्ताना करूँ बहुत हुजूम है यादों का दिल की बस्ती में जो देख पाओ तो दिल को निगार-ख़ाना करूँ हुनर-नवाज़ तह-ए-क़ब्र जा चुके 'फ़रहत' दक़ीक़ लफ़्ज़ों में अब रस्म-ए-दिल अदा न करूँ