शिकस्ता लम्हों का तू वक़्त को हिसाब न दे हवा के हाथ में बिखरी हुई किताब न दे सुलग रहा है बदन धूप की तमाज़त से भड़क उठूँगा मुझे चश्मा-ए-सराब न दे वो रंग-ए-शब है कि धुँदला के रह गईं आँखें इन आइनों को अभी कोई अक्स-ए-ख़्वाब न दे तिरे वजूद से बाहर भी एक दुनिया है यूँ अपने आप को तन्हाई का अज़ाब न दे मैं ज़िंदगी की सदा आग भी हूँ शबनम भी मिरे दुखों को समझ यूँ मुझे जवाब न दे गुज़र न दिल के बयाबाँ से अब्र की सूरत सुकूत-ए-दश्त को मौजों का इज़्तिराब न दे मिरी हयात का हामिल हैं ज़र्द-रू पत्ते ख़िज़ाँ का नक़्श हूँ तू मुझ को आब-ओ-ताब न दे न छुप सकेंगी सदाक़त की तल्ख़ियाँ 'राशिद' बरहना शक्ल को अल्फ़ाज़ की नक़ाब न दे