शिकस्ता-दिल की ख़ुशी दोस्तो ख़ुशी तो न थी हँसी पे वक़्त के इक तंज़ था हँसी तो न थी तमाम उम्र जिसे रौशनी समझते रहे फ़रेब-ए-चश्म-ए-तमन्ना था रौशनी तो न थी किसी के बा'द जो गुज़री किसी की हसरत में वो इक सज़ा-ए-मोहब्बत थी ज़िंदगी तो न थी जिसे ज़माने ने गुल की हँसी का नाम दिया वो एक कैफ़ियत-ए-कर्ब थी हँसी तो न थी मैं तर्क रस्म-ए-वफ़ा बेवफ़ा से क्यूँ करता था इख़्तिलाफ़-ए-ख़यालात दुश्मनी तो न थी हँसी हँसी में मिरे दिल को छीनने वाले ये इंतिक़ाम-ए-मोहब्बत थी दिलबरी तो न थी मिली थी राह-ए-हवस में जो रौशनी 'साक़ी' वो एक ज़ुल्मत-ए-रहज़न थी रौशनी तो न थी