शिकस्त-ए-ज़र्फ़ से खोएँ न हम भरम अपना शराब पी के न बहके कभी क़दम अपना ये जानते हैं कि मेराज-ए-ज़िंदगी क्या है वफ़ा की राह में करते हैं सर क़लम अपना हम अपने दिल को मक़ाम-ए-ख़ुदा समझते हैं यही है देर अब अपना यही हरम अपना ये बल जबीन-ए-क़ज़ा-ओ-क़दर पे क्यूँ आख़िर बना रहे हैं मुक़द्दर जो आज हम अपना बहुत ख़ुलूस 'मुनव्वर' के दिल में पाता हूँ अजीब शख़्स है ये दोस्त मोहतरम अपना