शिकस्त-ए-ख़्वाब का हमें मलाल क्यूँ नहीं रहा बिछड़ गए तो फिर तिरा ख़याल क्यूँ नहीं रहा अगर ये इश्क़ है तो फिर वो शिद्दतें कहाँ गईं अगर ये वस्ल है तो फिर मुहाल क्यूँ नहीं रहा वो ज़ुल्फ़ ज़ुल्फ़ रात क्यूँ बिखर बिखर के रह गई वो ख़्वाब ख़्वाब सिलसिला बहाल क्यूँ नहीं रहा वो साया जो बुझा तो क्या बदन भी साथ बुझ गया नज़र को तीरगी का अब मलाल क्यूँ नहीं रहा वो दौर जिस में आगही के दर खुले थे क्या हुआ ज़वाल था तो उम्र-भर ज़वाल क्यूँ नहीं रहा कहीं से नक़्श बुझ गए कहीं से रंग उड़ गए ये दिल तिरे ख़याल को सँभाल क्यूँ नहीं रहा