शिकस्त-ए-शीशा-ए-दिल की सदा हूँ मैं ख़ुद भी ख़ुद को सुनना चाहता हूँ नहीं मेरे लिए क्या और कोई उसी का रास्ता क्यूँ देखता हूँ उसी साहिल पे डूबूँगा जहाँ से समुंदर का तमाशा कर रहा हूँ चराग़-ए-शोला-ए-सर हूँ और हवा में सर-ए-दीवार-ए-जाँ रक्खा हुआ हूँ गुज़रना है जिसे सहरा से हो कर मैं उस दरिया के दुख से आश्ना हूँ विसाल-ए-यार की ख़्वाहिश में अक्सर चराग़-ए-शाम से पहले जला हूँ ग़ुनूदा साअ'तों की शब से 'तिश्ना' तवाफ़-ए-आरिज़-ओ-लब कर रहा हूँ