शिकवा नहीं किसी की मुलाक़ात का मुझे तुम जानते हो वह्म है जिस बात का मुझे जाना कि बू-ए-ग़ैर ये पहचान जाएगा बासी न उस ने हार दिया रात का मुझे मिल कर तमाम भेद कहूँगा रक़ीब से आता है ख़ूब तोड़ तिरी घात का मुझे डरना किसी का और वो बिजली का कौंदना मौसम बहुत पसँद है बरसात का मुझे आख़िर वहाँ रक़ीब ने नक़्शा जमा लिया ऐ 'दाग़' ख़ौफ़ था उसी बद-ज़ात का मुझे