शिकवे हमें तो जेहद-ए-मुकर्रर के नहीं हैं हिजरत हुई है यूँ कि किसी घर के नहीं हैं किस जुर्म में ये पहलू-तही हम से रवा है ऐ शीशा-ए-गर्द हम कोई पत्थर के नहीं हैं सर-बस्ता-ए-ज़ंजीर किया हम को जिन्हों ने वो लोग उसी घर के हैं बाहर के नहीं हैं किस दर्जा मुकर्रम हैं मिरे अश्क न पूछो वो दाम मिले हैं कि जो गौहर के नहीं हैं वो दर्द सहा है कि जो ग़ैरों का नहीं था वो ज़ख़्म लगे हैं कि जो ख़ंजर के नहीं हैं