शोला-ए-इश्क़ में जो दिल को तपाँ रखते हैं अपनी ख़ातिर में कहाँ कौन-ओ-मकाँ रखते हैं सर झुकाते हैं उसी दर पे कि वो जानता है हम फ़क़ीरी में भी अंदाज़-ए-शहाँ रखते हैं बादबाँ चाक है और बाद-ए-मुख़ालिफ़ मुँह-ज़ोर हौसला ये है कि कश्ती को रवाँ रखते हैं वहशत-ए-दिल ने हमें चैन से जीने न दिया चश्म गिर्यां कभी जाँ शोला-फ़िशाँ रखते हैं उस को फ़ुर्सत नहीं तो हम भी ज़बाँ क्यूँ खोलें वर्ना सीने में गुल-ए-ज़ख़्म निहाँ रखते हैं अर्श-ता-फ़र्श फिराया गया कूचा कूचा अब ख़ुदा जाने मिरी ख़ाक कहाँ रखते हैं दिल में वो रश्क-ए-गुलिस्ताँ लिए फिरते हैं 'शमीम' फूल खिलते हैं क़दम आप जहाँ रखते हैं