शोर कैसा है मुब्तला मुझ में कौन रहता है दूसरा मुझ में मैं किसी जब्र के हिसार में हूँ इक सफ़र है रुका हुआ मुझ में जाने क्या था कि रात उस का ख़याल रास्ता ढूँढता रहा मुझ में टिमटिमाते रहे गली के चराग़ रक़्स करती रही हवा मुझ में कब से अपनी तलाश है मुझ को तू ने क्या क्या छुपा दिया मुझ में कितना सरसब्ज़ हो गया हूँ मैं कौन सा ज़ख़्म था हरा मुझ में इस क़दर ग़ौर से न देख मुझे अक्स पड़ता है चाँद का मुझ में 'क़ैस' वो शख़्स आम सा था मगर कितने मंज़र सजा गया मुझ में