शोरिश-ए-ख़ाकिस्तर-ए-ख़ूँ को हवा देने से क्या लम्स आँखों को बदन का ज़ाइक़ा देने से क्या हो चुकी है गुम सदा-ए-बाज़गश्त-ए-ग़ैब भी पत्थरों को अब कोई नक़्श-ए-नवा देने से क्या धुँद की गहरी तहों में सारे पैकर दफ़्न हैं अपनी बिछड़ी साअ'तों को अब सदा देने से क्या इक निहाल-ए-ख़स्ता की सूरत खड़ा हूँ राह में मुझ को आने वाली रुत का आसरा देने से क्या कौन समझेगा मुझे तस्वीर अधूरी छोड़ दूँ रंग कोई दायरा-दर-दायरा देने से क्या एक दिन खा जाएगी मौसम की संगीनी उन्हें ख़ुशबुओं को ख़्वाहिश-ए-सैल-ए-सबा देने से क्या बन गई है बैअत-ए-बातिल असास-ए-वक़्अत 'रम्ज़' अर्सा-ए-इम्काँ को ज़ेहन-ए-कर्बला देने से क्या