शुक्र है अब के बेकली कम है आज-कल उन से दोस्ती कम है साँस लेने में दम निकलता है इन हवाओं में कुछ नमी कम है तुम उसे ज़ख़्म-ए-दिल दिखाते हो वो जो क़ातिल है आदमी कम है ताब भर उस में है जलाने की अपने सूरज में रौशनी कम है हम तो दुनिया को क्या से क्या कर दें क्या करें अपनी ज़िंदगी कम है लग रहा है कि वो न आएँगे आज महफ़िल में खलबली कम है काम के हम भी आदमी हैं अब आज-कल हम में आशिक़ी कम है उन से 'अज़हर' तो हम नहीं जिन में सिर्फ़ सूरत है शाइ'री कम है