शुऊर-ए-ज़ात का सौदा कहीं सरों में न था कि अब शुमार किसी का पयम्बरों में न था किसी के लब पे शिकायत न थी अंधेरे की कोई चराग़ भी जलता हुआ घरों में न था जो पत्थरों पे भी सो जाता था सुकून की नींद अब उस को चैन कहीं नर्म बिस्तरों में न था पिघलने की वो रिवायत तो मोम में भी न थी वो सख़्त-पन भी कहीं आज पत्थरों में न था अभी अभी ही मैं जिस दिन से मिल के आया हूँ वो दिन तो साल के सारे कलेंडरों में न था न कोई नक़्श ही दुनिया में मिल सका तेरा तिरा पता कहीं लाशों के पिंजरों में न था बहुत दिनों से हैं झीलें भी पुर-सुकून 'सलीम' वो इज़्तिराब भी अब तो समुंदरों में न था