शरीक-ए-ग़म कोई कब मो'तबर निकलता है सिवाए दल के सो वो बे-ख़बर निकलता है ये कैसा शहर है कैसी है सर-ज़मीं उस की जहाँ की ख़ाक पलटता हूँ सर निकलता है जिधर हैं प्यासे उधर बारिशें हैं तीरों की जिधर ग़नीम है दरिया उधर निकलता है उसे ख़बर है कि ज़ुल्मत है सफ़-ब-सफ़ हर-सू उजाला हाथ में ले कर सिपर निकलता है हफ़ीज़ हाथों का साया है साएबाँ जैसा यक़ीन होता है दिल को न डर निकलता है अजीब धुँद है दश्त-ए-सफ़र पे छाई हुई न ख़त्म होता है रस्ता न घर निकलता है 'मुजीबी' सौंप दी जिस को मता-ए-जाँ मैं ने उसी का क़र्ज़ मिरे नाम पर निकलता है