सीधी सी बात है जो मुझे जानता नहीं मैं भी फिर ऐसे शख़्स को पहचानता नहीं पहले वो ख़ुद-सरी थी कि सुनता नहीं था मैं अब कुछ दिनों से कुछ भी बुरा मानता नहीं क़ातिल अगर है वो तो कोई बात भी तो है यूँ ख़ून में लिबास कोई सानता नहीं सब ख़ूब-सूरती के झरोकों में हैं मगर सीरत को सूरतों से कोई छानता नहीं खुल जाएँ जिन से पाँव कभी सर वो चादरें रब को भी इल्म है मैं कभी ताँता नहीं