सिखाए वक़्त ने अतवार सद हज़ार मुझे कि अब तो चोट भी रहती है साज़गार मुझे निकाल दे मिरे दिल से अदा-ओ-नाज़ सभी बिगड़ गया हूँ ग़म-ए-ज़िंदगी सँवार मुझे मैं तेरे पास घड़ी दो-घड़ी का मेहमाँ हूँ अगरचे वक़्त कड़ा हूँ मगर गुज़ार मुझे दिया जो हाथ मिरे हाथ में तू चुपके से थमा गया है कोई दर्द बे-शुमार मुझे यक़ीं भी है कि उसे लौट कर नहीं आना मगर है शाम-ओ-सहर फिर भी इंतिज़ार मुझे कोई तो है पस-ए-दीवार-ओ-दर निहाँ 'अज़्मी' पुकारता है सर-ए-शाम बार बार मुझे