सीने में चराग़ जल रहा है माथे से लहू उबल रहा है होंटों पे चमन खिले हुए हैं आँखों से धुआँ निकल रहा है पैकर पे उगे हुए हैं काँटे एहसास का पेड़ फल रहा है बातिन में बपा है एक तूफ़ाँ दरिया है कि रुख़ बदल रहा है क्या वक़्त पड़ा है ऐ ग़म-ए-जाँ ख़ुद अपना वजूद खल रहा है मैं जिस की तलाश को चला था वो शख़्स तो साथ चल रहा है तन्हा हूँ 'जलील' इस नगर में मक़्तल में चराग़ जल रहा है