और खुल जा कि मआ'रिफ़ की गुज़रगाहों में पेच ऐ ज़ुल्फ़-ए-सियह-फ़ाम अभी बाक़ी हैं इक सुबू और कि लौह-ए-दिल-ए-मय-नोशाँ पर कुछ नुक़ूश-ए-सहर-ओ-शाम अभी बाक़ी हैं ठहर ऐ बाद-ए-सहर उस गुल-ए-नौ-रस्ता के नाम और भी शौक़ के पैग़ाम अभी बाक़ी हैं ऐ हरीफ़ान-ए-सुबू गोश-बर-आवाज़ रहो दामन-ए-वही में इल्हाम अभी बाक़ी हैं तूल खींच ऐ शब-ए-मय-ख़ाना कि सब कार-ए-सियाह ब-हमा लज़्ज़त-ए-इक़दाम अभी बाक़ी हैं और अभी रौंदा नहीं ऐ कफ़-ए-पा-ए-तहक़ीक़ दिल में सौ तरह के औहाम अभी बाक़ी हैं ऐ सही क़द तिरी निस्बत से सब ऊँची क़द्रें बावजूद-ए-रविश-ए-आम अभी बाक़ी हैं हम में कल के न सही 'हाफ़िज़'-ओ-'ख़य्याम' 'ज़फ़र' आज के 'हाफ़िज़'-ओ-'ख़य्याम' अभी बाक़ी हैं