सिर्फ़ बातों से बहल जाने का क़ाइल तो नहीं दिल मिरा सादा है एहसास से ग़ाफ़िल तो नहीं वार करता है नज़र से यही क़ातिल तो नहीं चोट खा कर जो तड़पता है मिरा दिल तो नहीं शोर-ओ-ग़ुल बढ़ता ही जाता है मिरे कानों में दिल में जो है वही तूफ़ाँ लब-ए-साहिल तो नहीं क़ाफ़िले वालों ने बिस्तर जहाँ अपने खोले सच तो ये है वो मिरे नाम की मंज़िल तो नहीं सामना हो तो पता भी चले फिर कौन है क्या मैं ने माना कि कोई मिरे मुक़ाबिल तो नहीं महफ़िलें और भी हैं हुस्न-ओ-अदा की लेकिन तेरी महफ़िल की तरह अब कोई महफ़िल तो नहीं हम तो तय्यार हैं इक हश्र उठाने के लिए आप ख़ुद ही किसी तूफ़ान से ग़ाफ़िल तो नहीं दूर ही से नज़र आ जाता है 'जामी' तेरा भीड़ में रह के भी वो भीड़ में शामिल तो नहीं