सिर्फ़ कहने को कोई अज़्मत-निशाँ बनता नहीं चंद क़तरों से तो बहर-ए-बे-कराँ बनता नहीं चार छे फूलों से अपने घर का गुलदस्ता सजा चार छे फूलों से हरगिज़ गुलिस्ताँ बनता नहीं कारवाँ का पास है तुझ को तो पानी पर न चल ये वो जादा है जहाँ कोई निशाँ बनता नहीं बे-सर-ओ-सामाँ परिंदो काश तुम ये सोचते कौन सी शाख़ें हैं जिन पर आशियाँ बनता नहीं किस क़दर ना-क़ाबिल-ए-इदराक है मेरी ज़बाँ कोई इस बस्ती में मेरा हम-ज़बाँ बनता नहीं