सिसकती ज़िंदगी को ज़िंदगानी कौन देता है ख़िज़ाँ के बाद फिर से रुत-सुहानी कौन देता है मिरी आँखों में सहराओं का मंज़र देखने वालो तह-ए-सहरा ये दरिया को रवानी कौन देता है नहीं मुझ से कोई शिकवा-गिला तो सच बताओ फिर मिरी बातों को रंग-ए-बद-गुमानी कौन देता है शह-ए-कनआँ' की चाहत में दिवानी मिस्र की मलिका उसी मलिका को फिर दौर-ए-जवानी कौन देता है वहाँ पर आब-ओ-गिल से रूह की तश्कील होती है यहाँ ला कर शुऊर-ए-ज़िंदगानी कौन देता है महक उठता हर इक गोशा-ए-शेर-ओ-सुख़न तेरा 'सदफ़' होंटों को तेरे गुल-फ़िशानी कौन देता है