सितम की तेग़ चली तीर भी जफ़ा के चले जो बात हक़ थी सर-ए-दार हम सुना के चले कुछ ऐसी दूर न थीं मंज़िलें मोहब्बत की वुफ़ूर-ए-शौक़ में हम फ़ासले बढ़ा के चले जो आब-ओ-दाना चमन से उठा चमन वालो हर इक शाख़ पे हम आशियाँ बना के चले उठे तो महफ़िल-ए-रिंदाँ से तिश्ना-काम मगर क़दम क़दम पे हम एक मय-कदा बना के चले सुलग सुलग के रहे जो दिया बुझा न सके गए तो जाते हुए आग वो लगा के चले 'ख़याली' शे'र है क्या ये तो अहल-ए-फ़न जानें हम अपने दिल की ब-शक्ल-ए-ग़ज़ल सुना के चले