सितमगरों से डरूँ चुप रहूँ निबाह करूँ ख़ुदा वो वक़्त न लाए मैं ये गुनाह करूँ मिरी नज़र में अना के शरर सलामत हैं इन्हें बुझाऊँ तो ताज़ीम कम-निगाह करूँ मिरी ज़बाँ को सलीक़ा नहीं गुज़ारिश का मैं अपने हक़ से ज़ियादा न कोई चाह करूँ पहाड़ मेरे तहव्वुर का इस्तिआ'रा है मैं पस्तियों से भला कैसे रस्म-ओ-राह करूँ मसाफ़-ए-जीस्त में मुझ को बस आगही दे दो हराम है जो तलब फिर कोई सिपाह करूँ किसी को ख़ौफ़-ए-सलासिल किसी को हिर्स-ए-करम मैं अपने हक़ में ख़ुदाया किसे गवाह करूँ सितम तो ये है कि फ़ौज-ए-सितम में भी 'अंजुम' बस अपने लोग ही देखूँ जिधर निगाह करूँ