सितारा शाम से निकला हुआ है दिया भी ताक़ में रक्खा हुआ है कहीं वो रात भी महकी हुई है कहीं वो चाँद भी चमका हुआ है अभी वो आँख भी सोई नहीं है अभी वो ख़्वाब भी जागा हुआ है किसी बादल को छू कर आ रही है हवा का पैरहन भीगा हुआ है ज़मीं बे-अक्स हो कर रह गई है फ़लक का आइना मैला हुआ है ख़मोशी झाँकती है खिड़कियों से गली में शोर सा फैला हुआ है हवा गुम-सुम खड़ी है रास्ते में मुसाफ़िर सोच में डूबा हुआ है कोई नींदों में ख़ुशबू घोलता है दरीचा ख़्वाब का महका हुआ है किसी गुज़रे बरस की डाइरी में तुम्हारा नाम भी लिक्खा हुआ है चराग़-ए-शाम की आँखें बुझी हैं सितारा ख़्वाब का टूटा हुआ है सफ़र की रात है 'नासिर' दिलों में अजब इक दर्द सा ठहरा हुआ है