सितारे रक़्स करते हैं न तारे रक़्स करते हैं तिरी ख़ातिर शब-ए-फ़ुर्क़त के मारे रक़्स करते हैं कभी आ कर चले जाना कभी छुपना कभी मिलना मिरी आँखों में अब तक वो नज़ारे रक़्स करते हैं न जाने मुतरिबा ने साज़ पर धुन कैसी छेड़ी है शरीक-ए-बज़्म जितने हैं वो सारे रक़्स करते हैं ज़रा सी छेड़ पर ऐ 'शम्स' उन की कैफ़ियत ये है ग़ज़ब के मारे आँखों में शरारे रक़्स करते हैं