सियाह है दिल-ए-गीती सियाह-तर हो जाए ख़ुदा करे कि हर इक शाम बे-सहर हो जाए कुछ इस अदा से चले बाद-ए-बर्ग-रेज़ ख़िज़ाँ कि दूर तक सफ़-ए-अशजार बे-समर हो जाए बजाए रंग रग-ए-ग़ुंचा से लहू टपके खिले जो फूल तो हर बर्ग-ए-गुल शरर हो जाए पड़े जो हाथ चमन में ब-क़स्द-ए-गुल-चीनी मिसाल-ए-पंजा-ए-क़स्साब ख़ूँ में तर हो जाए फ़रोग़-ए-महर से हो इख़्तिलाज-ए-क़ल्ब-ए-फ़ुज़ूँ बहाना-ए-ख़फ़क़ाँ जल्वा-ए-क़मर हो जाए ज़माना पी तो रहा है शराब दानिश को अजब नहीं कि यही ज़हर कारगर हो जाए कोई क़दम न उठे सू-ए-मंज़िल-ए-मक़्सूद दुआ ये कर कि हर इक राह पुर-ख़तर हो जाए