सियाह-रात के सीने पे जगमगाता हुआ गुज़र गया है कोई रौशनी लुटाता हुआ सुना रहा हूँ कहानी इधर-उधर की उसे मैं ज़ब्त करता हुआ सानिहा छुपाता हुआ ज़रा सी देर है अंदर की रुत बदलने में कि रो पड़ूँगा अभी क़हक़हा लगाता हुआ किसी उजाड़ जज़ीरे पे देखा जाऊँगा मैं धूप चुनता हुआ और शजर लगाता हुआ मिरी तलब के बराबर न दे मगर ये बता ग़ुबार-ए-राह फिरूँ कब तलक उड़ाता हुआ