सियाह-ख़ाना-ए-उम्मीद-ए-राएगाँ से निकल खुली फ़ज़ा में ज़रा आ ग़ुबार-ए-जाँ से निकल अजीब भीड़ यहाँ जम्अ है यहाँ से निकल कहीं भी चल मगर इस शहर-ए-बे-अमाँ से निकल इक और राह उधर देख जा रही है वहीं ये लोग आते रहेंगे तू दरमियाँ से निकल ज़रा बढ़ा तो सही वाक़िआत को आगे तिलिस्म-कारी-ए-आग़ाज़-ए-दास्ताँ से निकल तू कोई ग़म है तो दिल में जगह बना अपनी तू इक सदा है तो एहसास की कमाँ से निकल यहीं कहीं तिरा दुश्मन छुपा है ऐ 'बानी' कोई बहाना बना बज़्म-ए-दोस्ताँ से निकल