सो उस को छोड़ दिया उस ने जब वफ़ा नहीं की पलट के हम ने कोई उस से इल्तिजा नहीं की जिगर फ़िगार रहे क़ैस से सिवा लेकिन गए न दश्त को और चाक भी क़बा नहीं की ख़ुदा को हाज़िर-ओ-नाज़िर समझ के ये कह दे कि हम ने तुझ से मोहब्बत में इंतिहा नहीं की मगर तू फिर भी गिला-मंद है तो होता रहे कि हम ने तुझ से वफ़ा की नहीं तो जा नहीं की ज़रूरतें तो कई तरह की रहीं दरपेश अमीर-ए-शहर के दर पर कभी सदा नहीं की ख़फ़ा किया है ख़ुदा को तो बार-हा लेकिन ख़ुदा का शुक्र ख़फ़ा ख़िल्क़त-ए-ख़ुदा नहीं की रही है दिल ही में रूदाद अपने दुख की सुकून कहीं कहा नहीं की और कहीं सुना नहीं की