सोचो तो बहुत कुछ है मगर बात ज़रा सी याद आती है अब तक वो मुलाक़ात ज़रा सी ऐ काश कि पाकीज़गी-ए-हुस्न को मिलती वारफ़्तगी-ए-शोरिश-ए-जज़्बात ज़रा सी इक उम्र तिरी याद में किस तरह गुज़ारें वो जिन से गुज़रती नहीं इक रात ज़रा सी अब भी वही आलम है वही हम हैं वही ग़म बदली ही नहीं सूरत-ए-हालात ज़रा सी इतना भी न दे तूल ग़म-ए-इश्क़ को 'राही' बढ़ जाए न ज़ालिम कहीं इक बात ज़रा सी