सोहबत-ए-मयकशी सरसरी रह गई और जो मीना भरी थी भरी रह गई क्या ग़ज़ब है नशेमन सुलगता रहा और शाख़-ए-नशेमन हरी रह गई आख़िरश काम आ ही गई ख़ामुशी लफ़्ज़-ओ-मा'नी की पर्दा-दरी रह गई हर नज़र बन गई अपने सीने का तीर इक ख़लिश बन के दीदा-दरी रह गई नस्ल-ए-आदम से इतने उठे किर्दगार अपने लब सी के पैग़म्बरी रह गई आदमी का ख़ुदा बन गया आदमी दावर-ए-हश्र की दावरी रह गई मेरा हर नक़्श-ए-पा बन गया संग-ए-मील ख़िज़र की ज़हमत-ए-रहबरी रह गई 'शोर' दामान-ए-ग़म हो गया तार तार हर मसर्रत की बख़िया-गरी रह गई