सोहबत-ए-शब का तलबगार न होगा कोई ख़ौफ़ इतना है कि बेदार न होगा कोई धूप हर सम्त से निकली तो कहाँ जाओगे दश्त में साया-ए-दीवार न होगा कोई हर्फ़-ए-एहसास भी जल जाएगा होंटों की तरह मुद्दआ' क़ाबिल-ए-इज़हार न होगा कोई मैं कि पर्वर्दा-ए-सहरा हूँ बिकूंगा कैसे देख लेना कि ख़रीदार न होगा कोई कुछ तो है जिस की तपिश ज़ेर-ओ-ज़बर करती है यूँही रुस्वा सर-ए-बाज़ार न होगा कोई सारे आलम को तजस्सुस है नई सम्तों का कैसे 'ग़ालिब' का तरफ़-दार न होगा कोई किस को ये अहद-ए-जुनूँ सौंप के जाऊँ 'नामी' जानता हूँ कि सज़ा-वार न होगा कोई