सोज़-ए-दिल का ज़िक्र अपने मुँह पे जब लाते हैं हम शम्अ साँ अपनी ज़बाँ से आप जल जाते हैं हम दम-ब-दम उस शोख़ के आज़ुर्दा हो जाने से आह जब नहीं कुछ अपना बस चलता तो घबराते हैं हम बैठने को तो नहीं आए हैं याँ ऐ बाग़बाँ क्यूँ ख़फ़ा होता है इतना हम से तू जाते हैं हम दिल से हम छुट जाएँ या दिल हम से छुट जावे कहीं इस के अलझेड़े से अब तो सख़्त उकताते हैं हम दिल ख़ुदा जाने किधर गुम हो गया ऐ दोस्ताँ ढूँढते फिरते हैं कब से और नहीं पाते हैं हम दोनों दीवाने हैं क्या समझेंगे आपस में अबस हम को समझाता है दिल और दिल को समझाते हैं हम याद में उस गुल-बदन की आज-कल तू ऐ 'हसन' बाग़ में फिर फिर के अपने दिल को बहलाते हैं हम